अब ना रहा वो बचपन सुनहरा


ल सारी रात मैं यूं ही करवटें बदलता रहा
आंखें बंद थी मेरी पर, मैं रात भर जगता रहा
थे याद आ रहें मुझे दादाजी की कहानियां
पर मैं बिछाने पर यूं ही अचेत सा पड़ा रहा
सब सो रहें थे चैन से पर,यूं ही जगता रहा
कमरे की खिड़कियों से मैं चांद को निहारता रहा
खल रही थी कमी मुझे दादीजी के आंचल की
जिसकी छाव में, था मैंने अपना बचपन बिताया
अचानक से पड़ी आंखों पर सूरज की तेज़ किरण
उठकर बैठ गया मैं अपनी आंखें मलता हुआ
सहसा मेरे कानों में एक आवाज़ महसूस हुई
मानो कोई कह रहा हो,शुरू हो गई है जवानी
     "अब ना रहा वो बचपन सुनहरा"
Like, Comment,Share and Follow.

Comments

Popular posts from this blog

गिरना भी अच्छा है, औकात का पता चलता है

कविता तिवारी का देशप्रेम

मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर